धर्म एवं दर्शन >> अमृत प्रवचन अमृत प्रवचनस्वामी अवधेशानन्द गिरि
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अध्यात्म के गूढ़ पक्षों का सरल विवेचन...
Amrat Pravachan a hindi book by Swami Avdheshanand Giri - अमृत प्रवचन - स्वामी अवधेशानन्द गिरि
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
श्रीमद्भागवत की उपलब्धि है परीक्षित का आत्मतत्व को प्राप्त होना। यही भागवत् दशा है। कथा श्रवण से पूर्व परीक्षित मृत्यु भय से भरा हुआ था बाद में उसे ज्ञात हो गया कि उसे कोई मार नहीं सकता। वह तो अमर है। मृत्यु शरीर की होती है, और वह प्रत्येक क्षण हो रही है। आज विज्ञान भी स्वीकार करता है कि प्रत्येक सात वर्षों में शरीर का एक-एक कोष, एक-एक कण बदल जाता है-पूरी तरह से। जहाँ तक भौतिक तत्वों के विनष्ट होने की बात है, तो वह बदलते हैं अपने रूप को-विनाश उनका भी नहीं होता। अमरता का अनुभव करने के बाद तत्वज्ञानी शरीर को छोड़ता है। ऐसा करने में उसे किसी प्रकार की पीड़ा या वेदना नहीं होती। सत्संग का प्रतिफल इस अमृतत्व की अनुभूति है-और कुछ नहीं।
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साधना के महत्वपूर्ण सूत्र
महर्षि पतंजलि कहते हैं-कुछ चीजें ऐसी हैं जिन्हें जीवन में संभालकर रखना चाहिए। श्रद्धा वीर्य स्मृति समाधि प्रज्ञापूर्वक इतरेषाम्-यह सूत्र है महर्षि पतंजलि का। एक साधक यत्नपूर्वक स्वयं के प्रति गंभीर होकर, स्वयं के प्रति सचेत होकर, अपने में जागरूकता पैदा करके देखे कि क्या यह सब चीजें मेरे पास सुरक्षित हैं ? क्या यह सब मैंने संभालकर रखी हैं ? इस जगत में आप सही ढंग से नहीं रह पाएंगे, अगर ये चीजें आपने संभाकर अपने पास नहीं रखीं-श्रद्धा वीर्य स्मृति और समाधिपूर्वक जीवन।
श्रद्धा-
महर्षि पतंजलि द्वारा बताए गए उपरोक्त सूत्र में मूलतः श्रद्धा ही है। श्रद्धा का वास्तविक अर्थ है-महापुरुषों के वाक्यों में निष्ठा होना। उनके आप्त वचन आपको हितकर लगें। आपको यह लगे कि जो शास्त्र में है, ग्रंथ में है, संत कह रहा है, गुरु कह रहे हैं, माता पिता बता रहे हैं और हमें परंपरा से प्राप्त है,
वे सारे के सारे ऐसे प्रमाण हैं जिनसे तारण हो सकता है। यही तत्व तारक हैं, धर्ममूलक हैं, व्यवस्था मूलक हैं, ज्ञानमूलक हैं तथा मुक्तिमूलक हैं। जब हमें भ्रम घेरेगा, दुविधा में भटक जाने का भय पैदा होगा, अज्ञान में लुप्त होना निश्चित सा लगने लगेगा, संदेह और संशय कुलबुलाएंगे। तथा बुद्धि को व्यथित करेंगे तब हमें महर्षि पतंजलि का यह सूत्र सही राह दिखाएगा, सांत्वना एवं धैर्य बंधाएगा तथा हमारी रक्षा करेगा।
सत्संग के इस वातावरण के मूल में भी मात्र श्रद्धा है। कहीं के परिवेश में बौद्धिकता होती है और कहीं के परिवेश में पाण्डित्य होता है। कहीं का परिवेश अत्यंत ऊर्जा से भरा होता है। वहां प्रबंधन, व्यवस्था, सज्जा और बहुत सी औपचारिकताएं हावी होती हैं। लेकिन यहां का परिवेश पूर्णतया आस्थापूर्ण है और इस परिवेश के मूल में है-श्रद्धा।
‘श्रीमद्भागवत गीता’ में कहा गया है श्रद्धा ज्ञान की जननी है।
श्रद्धा की कोख में ही ज्ञान पलता है। जो ज्ञान भ्रम-भय का भंजन करता है, हमारी मूल मान्यताओं पर प्रहार करता है, हमारे पूर्वाग्रहों से ग्रसित हमारी बुद्धि में समाधान का कारक बनता है तथा हमें उद्धत, चंचल और उन्मत्त होने से रोकता है; वह अत्यंत आनंदकारक एवं शांतिप्रदायक है। इसलिए भगवान ने कहा है कि श्रद्धा एक ऐसी कोख है जहां धीरे-धीरे ज्ञान पल रहा होता है।
जिस ज्ञान में विनम्रता, प्रियता, आनंद माधुर्य स्थिरता, आत्मरूपता तथा आत्मैक्यता होती है, वह सबके लिए समभाव है। ज्ञान का अर्थ यह नहीं कि जिसमें श्रेष्ठता हो-वह छोटा है
और मैं बड़ा हूं। ज्ञान में केवल श्रेष्ठता का बोध नहीं रहता। पवित्रता या उच्चता का बोध नहीं रहता। वैषम्यता का भाव नहीं होता। ज्ञान का अर्थ यह भी नहीं है जिसमें निरंतर पूज्यता का बोध रहे कि अब मैं बड़ा हो गया और ये छोटे हैं। ज्ञान वह है जो समतामूलक, प्रेमकारक तथा समाधान का आधार हो। यह ज्ञान आत्मभाव और अपनेपन की मीठी सी अनूभूति पैदा करता है एवं श्रद्धा से उत्पन्न होता है, यथा-
वे सारे के सारे ऐसे प्रमाण हैं जिनसे तारण हो सकता है। यही तत्व तारक हैं, धर्ममूलक हैं, व्यवस्था मूलक हैं, ज्ञानमूलक हैं तथा मुक्तिमूलक हैं। जब हमें भ्रम घेरेगा, दुविधा में भटक जाने का भय पैदा होगा, अज्ञान में लुप्त होना निश्चित सा लगने लगेगा, संदेह और संशय कुलबुलाएंगे। तथा बुद्धि को व्यथित करेंगे तब हमें महर्षि पतंजलि का यह सूत्र सही राह दिखाएगा, सांत्वना एवं धैर्य बंधाएगा तथा हमारी रक्षा करेगा।
सत्संग के इस वातावरण के मूल में भी मात्र श्रद्धा है। कहीं के परिवेश में बौद्धिकता होती है और कहीं के परिवेश में पाण्डित्य होता है। कहीं का परिवेश अत्यंत ऊर्जा से भरा होता है। वहां प्रबंधन, व्यवस्था, सज्जा और बहुत सी औपचारिकताएं हावी होती हैं। लेकिन यहां का परिवेश पूर्णतया आस्थापूर्ण है और इस परिवेश के मूल में है-श्रद्धा।
‘श्रीमद्भागवत गीता’ में कहा गया है श्रद्धा ज्ञान की जननी है।
श्रद्धा की कोख में ही ज्ञान पलता है। जो ज्ञान भ्रम-भय का भंजन करता है, हमारी मूल मान्यताओं पर प्रहार करता है, हमारे पूर्वाग्रहों से ग्रसित हमारी बुद्धि में समाधान का कारक बनता है तथा हमें उद्धत, चंचल और उन्मत्त होने से रोकता है; वह अत्यंत आनंदकारक एवं शांतिप्रदायक है। इसलिए भगवान ने कहा है कि श्रद्धा एक ऐसी कोख है जहां धीरे-धीरे ज्ञान पल रहा होता है।
जिस ज्ञान में विनम्रता, प्रियता, आनंद माधुर्य स्थिरता, आत्मरूपता तथा आत्मैक्यता होती है, वह सबके लिए समभाव है। ज्ञान का अर्थ यह नहीं कि जिसमें श्रेष्ठता हो-वह छोटा है
और मैं बड़ा हूं। ज्ञान में केवल श्रेष्ठता का बोध नहीं रहता। पवित्रता या उच्चता का बोध नहीं रहता। वैषम्यता का भाव नहीं होता। ज्ञान का अर्थ यह भी नहीं है जिसमें निरंतर पूज्यता का बोध रहे कि अब मैं बड़ा हो गया और ये छोटे हैं। ज्ञान वह है जो समतामूलक, प्रेमकारक तथा समाधान का आधार हो। यह ज्ञान आत्मभाव और अपनेपन की मीठी सी अनूभूति पैदा करता है एवं श्रद्धा से उत्पन्न होता है, यथा-
श्रद्धावान् लभते ज्ञानं तत्परः संयितेन्द्रियः।
ज्ञानं लब्धा परां शांतिमचिरेणाधिगच्छति।।
ज्ञानं लब्धा परां शांतिमचिरेणाधिगच्छति।।
जब कभी हम शांत होंगे, सहज होंगे, संयत होंगे, व्यवस्थित होंगे या संतुलित होंगे तो वह ज्ञान परम शांति पैदा करेगा, आपको सहज बना देगा, आप नैसर्गिक हो जाएंगे, स्वाभाविक हो जाएंगे तथा प्राकृतिक हो जाएंगे, जैसे-प्रकृति निर्दोष, निश्छल और बड़ी सहज है। ऐसी सहजता जो धरती, अंबर, अग्नि, जल, वायु या निहारिकाओं में है, फूलों की गंध में है और जो स्वाभाविकता ओस के नन्हे से कण में है, घनघोर घटनाओं से घिरे अंबर में है तथा बरसती एवं नाचती मेघ-धाराओं में है।
कभी-कभी जब व्यक्ति अपने को असहज पाता है, उन्मत्त पाता है, चपल या चंचल पाता है तो उसके मूल में उसकी भौतिक मांग, उसकी वैषयिक मांग, पदार्थगत आकर्षण तथा जगत का सम्मोहन होता है। यह तब होता है जब हम अपनी इंदियों पर अंकुश नहीं रख पाते जब मन पर हमारा नियंत्रण खो जाता है,
जब हम मन से नियंत्रण खो बैठते हैं, अथवा जब हमारी बुद्धि के भ्रम बढ़ जाते हैं। संसार के सारे आकर्षण, सारे प्रलोभन या भीतर की सारी लालसाएं भोगपूर्ति तथा कामनापूर्ति के लिए होती हैं। जब वे बहुत लालायित होती हैं और हम बहिर्मुख होते हैं या हमारा स्वयं से नियंत्रण छूट जाता है
तब हम असंयमित होते हैं, असंतुलित होते हैं तथा अपने आपमें एक व्याकुलता पाते हैं। उस समय वह ज्ञान काम में आता है जो आपको सीमांकन दे, सहजता प्रदान करे, आपको साधकर रखे, आपको संतुलित रखे तथा आपको व्यवस्थित रखे। उस ज्ञान की जननी श्रद्धा ही तो है।
कुछ लोग कहते हैं कि ग्रंथ ग्रंथि का भेदन करते हैं। शास्त्र तारक हैं इसलिए वे वहां तर्क नहीं करते। यदि हम शास्त्रों के प्रति अपने सारे तर्को का भंजन कर लें और सत्पुरुषों के महावाक्यों को हितकर मान लें तो आमोद-प्रमोद या हास-परिहास में उनके मुख से निकली कोई बात भी मंत्र ही होती है।
इस प्रकार उनकी हर बात में आप निश्चय कर लें कि वह हितकारक है। शास्त्र यह भी कहते हैं कि यदि महापुरुष आपको श्राप दे दें तो उसमें भी आपके कल्याण की संभावनाएं छिपी रहती हैं। अहिल्या से पूछा गया कि आपके पति महान ऋषि हैं। उन्होंने आपको शाप दे दिया है। इस पर अहिल्या ने कहा कि इसमें भी मेरा कोई भारी कल्याण छिपा होगा। ऋषियों के मुख से जो बात निकलती है, उसमें कोई अनर्थ हो ही नहीं सकता।
गोस्वामी तुलसीदास जी लिखते हैं-जो बहुत सहज हैं;
जितेंद्रिय, प्रसन्नात्मा एवं शांत हैं, जिनमें संतुलन पैदा हो गया है, अथवा जिनमें समतायोग सिद्ध हो गया है; अगर उन महापुरुषों की जिह्ना पर कोई अपवचन आ जाए तो बड़ा निंदनीय लगता है। परंतु तब भी उसमें मुक्तिकारक वचन होता है। एक बार बालक नचिकेता ने अपने पिता से कहा, आप ब्राह्मणों को जर्जर, कृशगात और अनुपयोगी गाय दान में दे रहे हैं। उन्होंने यह नहीं कहा कि ऐसा ठीक नहीं है परंतु पिता समझ गए कि यह मेरी निंदा कर रहा है, मेरा अनादर कर रहा है, मेरे कृत्य की भर्त्सना कर रहा है।
उधर ब्राह्मण भी यह नहीं कह पाए कि हमें बूढ़ी गायें क्यों दान में दी गई हैं। वे खिन्न चित्त होकर उन गायों को ले जा रहे थे और कह रहे थे कि यह अच्छा नहीं हुआ।
दान तो उत्तम कोटि का देना चाहिए, जिससे दूसरे की हित सिद्धि हो, जिससे दूसरे की हितपूर्ति हो अथवा जिसमें दूसरों के हित की संभावनाएं हों। यदि आप कोई वस्तु किसी को दान में दे रहे हैं तो वह हितकारक हो। इसमें गाय से बढ़िया कोई चीज नहीं थी। उसमें पंचगव्य बनता था, औषधि का निर्माण होता था, गृह उपयोग के लिए घृत देती और यदि बछड़े को जन्म देती तो बैल खेत को जोतते।
बालक नचिकेता ने पिता से कहा-पिताजी। आपकी संपत्ति में अन्य क्या-क्या चीज आती है ? पिता ने कहा-तुमसे बडी कोई संपत्ति नहीं है।
नचिकेता बोला-पिताजी ! शास्त्र कहते हैं कि अच्छी वस्तु, अच्छी निधि तथा अच्छी संपदा का दान करना चाहिए। अगर आप दान ही कर रहे हैं तो मुझको किसे दान में देंगे ?
पिता को चुप लग गया लेकिन बालक नचिकेता बार- बार टोकने लगा-पिताजी ! आप मुझे किसे दान में देंगे ? आपने यह भी विचार किया होगा कि मुझे भी किसी को दान में देंगे।
इस पर पिता ने क्रोध में कहा-मैं तुझे यमराज को दान में देता हूं। आज से तू यम की वस्तु हुआ। दान की गई वस्तु कभी ली नहीं जाती और कभी लौटाई नहीं जाती। अब तू मेरा नहीं रहा। चूंकि मैं तुझे दान कर चुका हूं इसलिए तू मेरे पास नहीं रहेगा।
बालक नचिकेता को यह बुरा नहीं लगा कि मेरे पिता ने मुझे कुछ कहा है। ऐसी श्रद्धा थी नचिकेता की अपने पिता के प्रति। यही श्रद्धा ज्ञानकारक बनी और नचिकेता को यमराज के द्वार पर लेकर गई। तब बाध्य हुआ मृत्यु का देवता, विवश हुआ उसे गले लगाने के लिए, उसकी मनोवांछित वस्तुएं प्रदान करने के लिए और उसका आत्मज्ञान की पिपासा शांत करने के लिए। यमराज ने देखा कि यह सामान्य बालक नहीं, श्रद्धावान बालक था।
जब हमारे पास श्रद्धा आती है तो वह हमें बाध्य करती है। गुरु के पास जो गुरुत्व है, साधु के पास जो साधुत्व है, संन्यासी के पास जो संन्यस्त है, गंगा के पास जो गंगत्व है,
देवताओं के पास जो देवत्व है और भगवान के पास जो भगवत्ता है; उसके हम स्वाभाविक रूप से अधिकारी बन जाते हैं। श्रद्धावान व्यक्ति स्वाभाविक रूप से योग्यता रखता है चूंकि उसके पास तर्क नहीं होते। नचिकेता ने कहा-ठीक है। फिर वह संकल्लित मन से यमराज की चौखट पर बैठ गया।
यमराज ने कहा-तू तीन दिन से मेरे द्वार पर बैठा है, बड़ा हठी है। मांग क्या मांगना चाहता है ? इस पर बालक नचिकेता ने कहा-मैं मृत्यु का भेद जानने आया हूं। जन्म-मृत्यु क्या है, यह भेद मुझे बता दीजिए। मैं जानना चाहता हूं कि जीव, और जगत और जगदीश्वर की सत्यता क्या है ? मैं अमरता का बोध लेने आया हूं। शरीर मरता है लेकिन अविनाशी तत्व कभी नहीं मरता-मैं उसी का बोध करने आया हूं।
यह सुनकर मृत्यु के देवता यमराज हतप्रभ हो गए। उन्होंने बालक नचिकेता के समक्ष ढेरों प्रलोभन रखते हुए कहा-तुम चक्रवर्ती सम्राट बनने, पृथ्वी पर प्रतिष्ठित और पूजित होने अथवा स्वर्ग की संपूर्ण संपदा प्राप्त करने का वर मांग लो। भला तुम्हारे इन प्रश्नों में क्या रखा है ?
बालक नचिकेता ने कहा-महाराज ! मुझे यह सब कुछ नहीं चाहिए। मुझे वही चाहिए जिसके बारे में मैंने आपसे पूछा है।
श्रद्धा उसे भी कहते हैं जिसके सामने जगत के सारे आकर्षण गौण हो जाएं। श्रद्धा का एक अर्थ यह भी है कि जागतिक आकर्षण गौण हो जाएं। श्रद्धा का एक अर्थ यह भी है
कि जागतिक आकर्षण आपके सामने शिथिल हो जाएं। जागतिक आकर्षण का तात्पर्य रूप, नाम, यश, संपदा-ऐश्वर्य, शक्ति-विभूति, सिद्धि-प्रसिद्धि और स्वर्ग के सुख से है।
भला क्या है स्वर्ग में ? जरा सा तप करें तो देवराज इंद्र के माथे पर पसीना आने लगता है। यदि किसी का तप, किसी तितिक्षा, किसी का कष्ट साध्य अनुष्ठान किसी की योग-युक्ति, किसी का आध्यात्मिक अभ्यास और किसी के धार्मिक प्रयोग आपके भीतर द्वेष पैदा कर दें तो यह क्या देवत्व है ? इसलिए स्वामी रामतीर्थ जी कहते थे-स्वर्ग क्या है, कुछ भी नहीं। जब स्वर्ग का सुख भी तुच्छ सा प्रतीत होने लगे और महापुरुषों के वाक्य आपको हितकारक लगने लगें तो उसे श्रद्धा कहते हैं। श्रद्धा के बल पर ही बालक नचिकेता ने सब कुछ प्राप्त कर लिया।
उपनिषदों में लिखा है-श्रद्धा सबको साथ जोड़ देगी, आपको बड़ा लचीला बना देगी, आपके चिंतन में कोमलता आ जाएगी-जड़ता नहीं, जिद नहीं, हठधर्मिता नहीं। श्रद्धा आपमें और आपके चिंतन में व्यापकता प्रदान करेगी। चिंतन में एक स्वीकृति पैदा हो जाएगी जो सबके लिए स्वीकृति है। आपमें ऐसी ग्राह्यता पैदा हो जाएगी कि आप ग्राह्म बन जाएंगे और धारण करने लग जाएंगे। कभी-कभी हमारी बुद्धि कुछ चीजों को खारिज करती है कि ये चीजें ठीक नहीं हैं। ये अमान्य, अपूज्य, हेय, निंदनीय, त्याज्य, घृणित अथवा अधम हैं तथा निःसंदेह दुख की कारक हैं।
श्रद्धा द्वारा सभी पदार्थों के प्रति आपमें ग्राह्यता का भाव आता है। तब कहीं आप सच्चे अधिकारी बनते हैं कि वह चीज आपके पास आए, वह संज्ञान में उतर आए, आपके बोध का हिस्सा बन जाए, आपकी समझ का एक अंग बन जाए तथा आपकी स्वाभाविक चर्या हो जाए।
कभी-कभी जब व्यक्ति अपने को असहज पाता है, उन्मत्त पाता है, चपल या चंचल पाता है तो उसके मूल में उसकी भौतिक मांग, उसकी वैषयिक मांग, पदार्थगत आकर्षण तथा जगत का सम्मोहन होता है। यह तब होता है जब हम अपनी इंदियों पर अंकुश नहीं रख पाते जब मन पर हमारा नियंत्रण खो जाता है,
जब हम मन से नियंत्रण खो बैठते हैं, अथवा जब हमारी बुद्धि के भ्रम बढ़ जाते हैं। संसार के सारे आकर्षण, सारे प्रलोभन या भीतर की सारी लालसाएं भोगपूर्ति तथा कामनापूर्ति के लिए होती हैं। जब वे बहुत लालायित होती हैं और हम बहिर्मुख होते हैं या हमारा स्वयं से नियंत्रण छूट जाता है
तब हम असंयमित होते हैं, असंतुलित होते हैं तथा अपने आपमें एक व्याकुलता पाते हैं। उस समय वह ज्ञान काम में आता है जो आपको सीमांकन दे, सहजता प्रदान करे, आपको साधकर रखे, आपको संतुलित रखे तथा आपको व्यवस्थित रखे। उस ज्ञान की जननी श्रद्धा ही तो है।
कुछ लोग कहते हैं कि ग्रंथ ग्रंथि का भेदन करते हैं। शास्त्र तारक हैं इसलिए वे वहां तर्क नहीं करते। यदि हम शास्त्रों के प्रति अपने सारे तर्को का भंजन कर लें और सत्पुरुषों के महावाक्यों को हितकर मान लें तो आमोद-प्रमोद या हास-परिहास में उनके मुख से निकली कोई बात भी मंत्र ही होती है।
इस प्रकार उनकी हर बात में आप निश्चय कर लें कि वह हितकारक है। शास्त्र यह भी कहते हैं कि यदि महापुरुष आपको श्राप दे दें तो उसमें भी आपके कल्याण की संभावनाएं छिपी रहती हैं। अहिल्या से पूछा गया कि आपके पति महान ऋषि हैं। उन्होंने आपको शाप दे दिया है। इस पर अहिल्या ने कहा कि इसमें भी मेरा कोई भारी कल्याण छिपा होगा। ऋषियों के मुख से जो बात निकलती है, उसमें कोई अनर्थ हो ही नहीं सकता।
गोस्वामी तुलसीदास जी लिखते हैं-जो बहुत सहज हैं;
जितेंद्रिय, प्रसन्नात्मा एवं शांत हैं, जिनमें संतुलन पैदा हो गया है, अथवा जिनमें समतायोग सिद्ध हो गया है; अगर उन महापुरुषों की जिह्ना पर कोई अपवचन आ जाए तो बड़ा निंदनीय लगता है। परंतु तब भी उसमें मुक्तिकारक वचन होता है। एक बार बालक नचिकेता ने अपने पिता से कहा, आप ब्राह्मणों को जर्जर, कृशगात और अनुपयोगी गाय दान में दे रहे हैं। उन्होंने यह नहीं कहा कि ऐसा ठीक नहीं है परंतु पिता समझ गए कि यह मेरी निंदा कर रहा है, मेरा अनादर कर रहा है, मेरे कृत्य की भर्त्सना कर रहा है।
उधर ब्राह्मण भी यह नहीं कह पाए कि हमें बूढ़ी गायें क्यों दान में दी गई हैं। वे खिन्न चित्त होकर उन गायों को ले जा रहे थे और कह रहे थे कि यह अच्छा नहीं हुआ।
दान तो उत्तम कोटि का देना चाहिए, जिससे दूसरे की हित सिद्धि हो, जिससे दूसरे की हितपूर्ति हो अथवा जिसमें दूसरों के हित की संभावनाएं हों। यदि आप कोई वस्तु किसी को दान में दे रहे हैं तो वह हितकारक हो। इसमें गाय से बढ़िया कोई चीज नहीं थी। उसमें पंचगव्य बनता था, औषधि का निर्माण होता था, गृह उपयोग के लिए घृत देती और यदि बछड़े को जन्म देती तो बैल खेत को जोतते।
बालक नचिकेता ने पिता से कहा-पिताजी। आपकी संपत्ति में अन्य क्या-क्या चीज आती है ? पिता ने कहा-तुमसे बडी कोई संपत्ति नहीं है।
नचिकेता बोला-पिताजी ! शास्त्र कहते हैं कि अच्छी वस्तु, अच्छी निधि तथा अच्छी संपदा का दान करना चाहिए। अगर आप दान ही कर रहे हैं तो मुझको किसे दान में देंगे ?
पिता को चुप लग गया लेकिन बालक नचिकेता बार- बार टोकने लगा-पिताजी ! आप मुझे किसे दान में देंगे ? आपने यह भी विचार किया होगा कि मुझे भी किसी को दान में देंगे।
इस पर पिता ने क्रोध में कहा-मैं तुझे यमराज को दान में देता हूं। आज से तू यम की वस्तु हुआ। दान की गई वस्तु कभी ली नहीं जाती और कभी लौटाई नहीं जाती। अब तू मेरा नहीं रहा। चूंकि मैं तुझे दान कर चुका हूं इसलिए तू मेरे पास नहीं रहेगा।
बालक नचिकेता को यह बुरा नहीं लगा कि मेरे पिता ने मुझे कुछ कहा है। ऐसी श्रद्धा थी नचिकेता की अपने पिता के प्रति। यही श्रद्धा ज्ञानकारक बनी और नचिकेता को यमराज के द्वार पर लेकर गई। तब बाध्य हुआ मृत्यु का देवता, विवश हुआ उसे गले लगाने के लिए, उसकी मनोवांछित वस्तुएं प्रदान करने के लिए और उसका आत्मज्ञान की पिपासा शांत करने के लिए। यमराज ने देखा कि यह सामान्य बालक नहीं, श्रद्धावान बालक था।
जब हमारे पास श्रद्धा आती है तो वह हमें बाध्य करती है। गुरु के पास जो गुरुत्व है, साधु के पास जो साधुत्व है, संन्यासी के पास जो संन्यस्त है, गंगा के पास जो गंगत्व है,
देवताओं के पास जो देवत्व है और भगवान के पास जो भगवत्ता है; उसके हम स्वाभाविक रूप से अधिकारी बन जाते हैं। श्रद्धावान व्यक्ति स्वाभाविक रूप से योग्यता रखता है चूंकि उसके पास तर्क नहीं होते। नचिकेता ने कहा-ठीक है। फिर वह संकल्लित मन से यमराज की चौखट पर बैठ गया।
यमराज ने कहा-तू तीन दिन से मेरे द्वार पर बैठा है, बड़ा हठी है। मांग क्या मांगना चाहता है ? इस पर बालक नचिकेता ने कहा-मैं मृत्यु का भेद जानने आया हूं। जन्म-मृत्यु क्या है, यह भेद मुझे बता दीजिए। मैं जानना चाहता हूं कि जीव, और जगत और जगदीश्वर की सत्यता क्या है ? मैं अमरता का बोध लेने आया हूं। शरीर मरता है लेकिन अविनाशी तत्व कभी नहीं मरता-मैं उसी का बोध करने आया हूं।
यह सुनकर मृत्यु के देवता यमराज हतप्रभ हो गए। उन्होंने बालक नचिकेता के समक्ष ढेरों प्रलोभन रखते हुए कहा-तुम चक्रवर्ती सम्राट बनने, पृथ्वी पर प्रतिष्ठित और पूजित होने अथवा स्वर्ग की संपूर्ण संपदा प्राप्त करने का वर मांग लो। भला तुम्हारे इन प्रश्नों में क्या रखा है ?
बालक नचिकेता ने कहा-महाराज ! मुझे यह सब कुछ नहीं चाहिए। मुझे वही चाहिए जिसके बारे में मैंने आपसे पूछा है।
श्रद्धा उसे भी कहते हैं जिसके सामने जगत के सारे आकर्षण गौण हो जाएं। श्रद्धा का एक अर्थ यह भी है कि जागतिक आकर्षण गौण हो जाएं। श्रद्धा का एक अर्थ यह भी है
कि जागतिक आकर्षण आपके सामने शिथिल हो जाएं। जागतिक आकर्षण का तात्पर्य रूप, नाम, यश, संपदा-ऐश्वर्य, शक्ति-विभूति, सिद्धि-प्रसिद्धि और स्वर्ग के सुख से है।
भला क्या है स्वर्ग में ? जरा सा तप करें तो देवराज इंद्र के माथे पर पसीना आने लगता है। यदि किसी का तप, किसी तितिक्षा, किसी का कष्ट साध्य अनुष्ठान किसी की योग-युक्ति, किसी का आध्यात्मिक अभ्यास और किसी के धार्मिक प्रयोग आपके भीतर द्वेष पैदा कर दें तो यह क्या देवत्व है ? इसलिए स्वामी रामतीर्थ जी कहते थे-स्वर्ग क्या है, कुछ भी नहीं। जब स्वर्ग का सुख भी तुच्छ सा प्रतीत होने लगे और महापुरुषों के वाक्य आपको हितकारक लगने लगें तो उसे श्रद्धा कहते हैं। श्रद्धा के बल पर ही बालक नचिकेता ने सब कुछ प्राप्त कर लिया।
उपनिषदों में लिखा है-श्रद्धा सबको साथ जोड़ देगी, आपको बड़ा लचीला बना देगी, आपके चिंतन में कोमलता आ जाएगी-जड़ता नहीं, जिद नहीं, हठधर्मिता नहीं। श्रद्धा आपमें और आपके चिंतन में व्यापकता प्रदान करेगी। चिंतन में एक स्वीकृति पैदा हो जाएगी जो सबके लिए स्वीकृति है। आपमें ऐसी ग्राह्यता पैदा हो जाएगी कि आप ग्राह्म बन जाएंगे और धारण करने लग जाएंगे। कभी-कभी हमारी बुद्धि कुछ चीजों को खारिज करती है कि ये चीजें ठीक नहीं हैं। ये अमान्य, अपूज्य, हेय, निंदनीय, त्याज्य, घृणित अथवा अधम हैं तथा निःसंदेह दुख की कारक हैं।
श्रद्धा द्वारा सभी पदार्थों के प्रति आपमें ग्राह्यता का भाव आता है। तब कहीं आप सच्चे अधिकारी बनते हैं कि वह चीज आपके पास आए, वह संज्ञान में उतर आए, आपके बोध का हिस्सा बन जाए, आपकी समझ का एक अंग बन जाए तथा आपकी स्वाभाविक चर्या हो जाए।
वीर्य-
वीर्य का अर्थ जितेंद्रियता है और जितेंद्रियता का आशय है कि आपकी इंद्रियों में पवित्रता आए। अगर आपके संसाधन अनैतिक हैं, आपके विचार नैतिक नहीं हैं, आपके चिंतन नैतिक नहीं हैं अथवा आप नैतिक दृष्टि से बड़े दुर्बल हैं तो आप आध्यात्मिक व्यक्ति नहीं हो सकते। आध्यात्मिक व्यक्ति बहुत नैतिक होता है। नैतिकता के बिना आध्यात्मिकता की कल्पना करना बिल्कुल व्यर्थ है। इसलिए पहले हमें नैतिक बनना होगा।
नैतिकता का अर्थ है-हमें अपनी इंद्रियों पर अंकुश रखना आए ताकि हमारा देखना, सूंघना, सुनना, छूना, चखना तथा बोलना नैतिक हो। इसीलिए कहा गया है कि जो व्यक्ति मनसा, वाचा एवं कर्मणा से एक है, वही महात्मा है। साधु महात्मा का अर्थ गैरिक वस्त्र धारण नहीं है। वस्तुतः जो जीवन से संन्यास ले लेता है,
उसे साधु-महात्मा कहते हैं।
संन्यास परम पवित्रता का नाम है। परम पवित्रता का पर्याय संन्यास है। संन्यास का अर्थ है-जिनके प्रति यह अपेक्षा हो कि इनमें पवित्रता है, पूज्यता है, दिव्यता है। इनमें कहीं जागतिक आकर्षण नहीं है। इनमें कहीं जगत के लिए कोई भाव नहीं है। जो अपने मन को इतना निर्लेप कर ले कि जगत में रहकर भी जगत से भिन्न हो जाए। कभी-कभी बहुत अच्छी बातें मन में आती हैं कि सच्चा साधक या सच्चा यति कौन है ? वह कौन है जिसे हम जितेंद्रिय की संज्ञा दे रहे हैं ?
जो संसार में तो रहता है परंतु उसके भीतर से संसार खो जाता है, वही महात्मा है। हम संसार में तो रहेंगे परंतु गृह त्याग करने का अर्थ गिरि, गह्यरों या उपत्यकाओं में जाकर धूनी रमाना नहीं है। सच तो यह है कि सबके बीच में रहकर भी आप संसार में रह रहे हैं और आपका संसार खो गया है। जो वैषयिक आकर्षण है, विषयगत है, पदार्थगत है, आपके भीतर विमोहन या सम्मोहन है, पदार्थ के प्रति एक गहरी अभिरुचि है, उसे सूंघने-चखने या पाने-छूने की सतत एक सातत्य है तथा वस्तुओं के भोगपूर्ति की आकांक्षा है जब उस पर अंकुश लगेगा तो जितेंद्रियता कहलाएगी।
वीर्य का अर्थ यह है कि हमारी इंद्रियां सधें। हम इंद्रियों तथा मन बुद्धि के धरालत पर पवित्र हों। एक बात देखी गई है कि जिनमें श्रद्धा की प्रचंडता होती है, उनकी इंद्रियां स्वाभाविक रूप से नियंत्रित हो जाती हैं। गुरुजन इंद्रियों को साधने का कोई पाठ नहीं बताते कि अब आपको अपनी आंख साधनी है, कान साधना है या मन साधना है। अगर आपमें अत्यंत श्रद्धा है तो जो मूल्य हैं, परंपरा है और चिंतन की प्रक्रिया है; उसके साथ जुड़ते ही आप अतींद्रिय हो जाते हैं। निम्नवत पंक्तियां मैं कभी नहीं भूलता-
नैतिकता का अर्थ है-हमें अपनी इंद्रियों पर अंकुश रखना आए ताकि हमारा देखना, सूंघना, सुनना, छूना, चखना तथा बोलना नैतिक हो। इसीलिए कहा गया है कि जो व्यक्ति मनसा, वाचा एवं कर्मणा से एक है, वही महात्मा है। साधु महात्मा का अर्थ गैरिक वस्त्र धारण नहीं है। वस्तुतः जो जीवन से संन्यास ले लेता है,
उसे साधु-महात्मा कहते हैं।
संन्यास परम पवित्रता का नाम है। परम पवित्रता का पर्याय संन्यास है। संन्यास का अर्थ है-जिनके प्रति यह अपेक्षा हो कि इनमें पवित्रता है, पूज्यता है, दिव्यता है। इनमें कहीं जागतिक आकर्षण नहीं है। इनमें कहीं जगत के लिए कोई भाव नहीं है। जो अपने मन को इतना निर्लेप कर ले कि जगत में रहकर भी जगत से भिन्न हो जाए। कभी-कभी बहुत अच्छी बातें मन में आती हैं कि सच्चा साधक या सच्चा यति कौन है ? वह कौन है जिसे हम जितेंद्रिय की संज्ञा दे रहे हैं ?
जो संसार में तो रहता है परंतु उसके भीतर से संसार खो जाता है, वही महात्मा है। हम संसार में तो रहेंगे परंतु गृह त्याग करने का अर्थ गिरि, गह्यरों या उपत्यकाओं में जाकर धूनी रमाना नहीं है। सच तो यह है कि सबके बीच में रहकर भी आप संसार में रह रहे हैं और आपका संसार खो गया है। जो वैषयिक आकर्षण है, विषयगत है, पदार्थगत है, आपके भीतर विमोहन या सम्मोहन है, पदार्थ के प्रति एक गहरी अभिरुचि है, उसे सूंघने-चखने या पाने-छूने की सतत एक सातत्य है तथा वस्तुओं के भोगपूर्ति की आकांक्षा है जब उस पर अंकुश लगेगा तो जितेंद्रियता कहलाएगी।
वीर्य का अर्थ यह है कि हमारी इंद्रियां सधें। हम इंद्रियों तथा मन बुद्धि के धरालत पर पवित्र हों। एक बात देखी गई है कि जिनमें श्रद्धा की प्रचंडता होती है, उनकी इंद्रियां स्वाभाविक रूप से नियंत्रित हो जाती हैं। गुरुजन इंद्रियों को साधने का कोई पाठ नहीं बताते कि अब आपको अपनी आंख साधनी है, कान साधना है या मन साधना है। अगर आपमें अत्यंत श्रद्धा है तो जो मूल्य हैं, परंपरा है और चिंतन की प्रक्रिया है; उसके साथ जुड़ते ही आप अतींद्रिय हो जाते हैं। निम्नवत पंक्तियां मैं कभी नहीं भूलता-
रे भाई कोई सद्गुरु संत कहावे
रे भाई कोई सद्गुरु संत कहावे,
जो नैनं अलख लखावे,
कर्म करे निष्कर्म करे,
जो ऐसी जुगत बतावे,
क्रिया से न्यारा
जो भोग में जोग जगावे,
रे भाई कोई सद्गुरु संत कहावे।
रे भाई कोई सद्गुरु संत कहावे,
जो नैनं अलख लखावे,
कर्म करे निष्कर्म करे,
जो ऐसी जुगत बतावे,
क्रिया से न्यारा
जो भोग में जोग जगावे,
रे भाई कोई सद्गुरु संत कहावे।
साधु-महात्मा को ही भोग में योग की कला आती है कि संसार के सब भोगों में कैसे योग-युक्ति धारण की जाए ? ये भोग हैं। इनका भोग करें या उपयोग करें ? संसार की सभी वस्तुओं का उपभोग नहीं उपयोग करें। उपभोग में योग जगाएं इसीलिए योग-मुक्ति होकर पदार्थों के साथ आत्ममैक्यता हो, तादात्म्य हो एवं पदार्थ हितकारक हो। ये निंदनीय हैं, ऐसी बात नहीं। पदार्थ कैसा है ? उसके मूल में जाकर उसका परिणाम जानने का नाम योग है।
स्मृति-
स्मृति का शब्दार्थ है-याद बनी रहे। आपके चिंतन, धारणाओं तथा अभीप्साओं में मात्र जगत है और कुछ नहीं। अतः आपमें किस चीज की याद या स्मृति बनी रहे ? कभी-कभी हम भगवान से प्रार्थना में ये बात कहें-हे देव ! आपकी कृपा से हम वंचित नहीं हैं। बस, हमें यह ध्यान बना रहे कि आपका अनुग्रह हम पर है। हम यह शिकायत करना छोड़ दें कि आपका अनुग्रह हम पर नहीं है। भगवान की कृपा हम पर है ही-यह बात हमारे संज्ञान में बनी रहनी चाहिए। जब यह स्मृति आपको बनी रहेगी तो निर्भार-निश्चिंत हो जाएंगे। आपको लगेगा कि वे शक्तिशाली हैं। उन जैसी सामर्थ्य किसी के पास नहीं है। ऐसे में आपमें भय नहीं रहेगा, अवसाद नहीं रहेगा।
स्मृति का अर्थ यह भी है-आत्म की स्मृति बनी रहे, देह की नहीं। हम निरंतर देह की स्मृति में बने रहते हैं। हम तो अपने को शरीर माने बैठे हैं-यह मेरा सिर है, यह मेरा वक्षःस्थल है, ये मेरी भुजाएं हैं, ये मेरे कपोल हैं, यह मेरी चिबुक है, ये मेरे नेत्र हैं और यह मैं हूं। स्मृति का एक अन्य अर्थ है-आत्म स्मृति यानी आप अपने स्वभाव में लौटकर आएं और इसमें एक दूरी बनी रहे। एक बार एक भक्त ने मुझसे कहा-स्वामी जी ! मुझे डर लगने लगा है। मैं पहले नहीं डरता था, यह डर मुझमें क्यों बैठ गया है ?
मैंने कहा-तुममें और परमात्मा में कुछ दूरी आ गई है इसलिए डर लगता है। दूरी अवसाद ला रहा है, यही तनाव ला रहा है और यही भय ला रहा है। इसका कारण यह है कि तुम्हारे और संतों के बीच तुम्हारे और गुरु के बीच तुम्हारे और भगवान के बीच में कुछ दूरी आ गई है। मेरी बात उसकी समझ में आ गई। वह चिंता तथा भय से मुक्त हो गया।
हम अपनी स्मृति में जगत को रखते हैं। हमारी स्मृति में पदार्थ है। चूंकि ये सम्मानजनक हैं, प्रतिष्ठाकारक हैं तथा सुख के मूल हैं इसलिए इन्हीं को लक्ष्य मानकर जी रहे हैं। हमारी स्मृति में यही हैं कि इन्हें कैसे प्राप्त कर लें ? ये हमारे बन जाएं, बड़ा मकान बन जाए, बहुत अच्छा वाहन हो, संतान हो, फिर वह बड़ी हो जाए, उनका अच्छा अध्ययन हो जाए; फिर बहू आए, उनके बच्चे हो जाएं-यही लक्ष्य है हमारा, हमारी स्मृति में यही रहता है।
स्मृति मात्र यह है कि देह सुख किसमें छिपे हुए हैं ? दैहिक आकर्षण की पूर्ति में ही हमारी स्मृति है। हमें निरंतर देह की याद रहती है कि मैं ‘ये’ हूं। देह की पूर्ति कभी नहीं हो सकती। यह एक रस नहीं है। यह दुख का एक कारण है। इसका निरंतर स्मरण रखना ही भयकारक है। इसी में भय छिपा हुआ है। अपने को देह मानने से भय आता है क्योंकि यह विनाशी है, खंडित होने वाला है, जर्जर है, नाशवान है, रोगी है। हमारे पास जो भय, दुख और क्लेश आता है; वह अपने को देह मानने से ही आता है।
समाधि-चौथी चीज है-समाधि। जो लोग कभी अपना समाधान नहीं कर पाते और निरंतर समस्याओं से घिरे रहते हैं, वे अपने आपमें स्वयं एक समस्या हैं। ऐसे लोग अपनी दुविधाओं का अंत नहीं कर पाते, अपने संशयों का भंजन नहीं कर पाते, अपने संदेह को नहीं समझ पाते और अपने अज्ञान को नहीं माप पाते। क्या ग्राफ है हमारे अज्ञान का ? जो व्यक्ति अपने अज्ञान का ग्राफ नहीं समझ पा रहा है कि वह कितना ऊंचा या नीचे जा रहा है; जो अपनी अस्मिता, राग-द्वेष या अभिनिवेश को नहीं जानता तथा अपने भीतर के अज्ञान और अविद्या को नहीं पहचानता; वह अपना समाधान कभी भी कदापि नहीं कर पाता।
ऐसी स्थिति में बुद्धिमान व्यक्ति को चाहिए कि वह ‘येन केन प्रकारेण’ अपने चित्त का स्थायी समाधान करे। वह समाधान की दिशा में पुरुषार्थ करे-अच्छे ग्रंथों को पढ़े, संतों के पास जाएं, विद्वानों के पास बैठे और अपने विवेक का लाभ उठाए। जो लोग अपने विवेक का कभी लाभ नहीं लेते, उन लोगों को स्थायी समाधान कभी नहीं मिलता-मानो समाधि।
अब यह प्रश्न उठता है कि आखिर कौन सी चीज ऐसी है जिससे हमें स्थायी समाधान मिल सकता है ? यह चीज है-विवेक। समाधि का आशय यहां समाधान से है। बुद्धिमान व्यक्ति वह है जो हर पल अपने समाधान में रहता है। जब आप समाधान में रहेंगे तो स्वाभाविक रूप से आपके होंठों पर एक मुस्कान आ जाएगी और आपके आस-पास एक प्रसन्नता छा जाएगी। यदि आपमें कोई समाधान नहीं है तो आपके चेहरे पर उलझन झलकती रहेगी और आपकी आंखों तथा चेहरे पर चिंताओं का जाल दिखेगा।
समस्या होने पर कोई व्यक्ति हमें क्यों चुप कराए हमें क्यों सांत्वना दे, हमें क्यों ढाढस बंधाए, हमारा संबल क्यों बने ? क्या हम इतने कमजोर, इतने दुर्बल, इतने भीरू, इतने दब्बू और इतने कायर हैं कि कोई हमें चुप कराए, सांत्वना दे या कंधा थपथपाए कि बहुत बड़ा नुकसान हो गया। सहानुभूति जताने नहीं आ रहे हैं लोग। कोई चुप कराने नहीं आ रहा है। आप अपना समाधान स्वयं उसी समय करें। अगर आप रोने बैठ जाएंगे तो कोई साथ देने को तैयार नहीं होगा। अगर आप मुस्कराएंगे तो सब आपका साथ देंगे और सबको अच्छा भी लगेगा। यह मुस्कान आपके भीतर से निकलनी चाहिए। ऐसी मुस्कान तब आएगी जब आप अपना समाधान कर लेंगे।
स्मृति का अर्थ यह भी है-आत्म की स्मृति बनी रहे, देह की नहीं। हम निरंतर देह की स्मृति में बने रहते हैं। हम तो अपने को शरीर माने बैठे हैं-यह मेरा सिर है, यह मेरा वक्षःस्थल है, ये मेरी भुजाएं हैं, ये मेरे कपोल हैं, यह मेरी चिबुक है, ये मेरे नेत्र हैं और यह मैं हूं। स्मृति का एक अन्य अर्थ है-आत्म स्मृति यानी आप अपने स्वभाव में लौटकर आएं और इसमें एक दूरी बनी रहे। एक बार एक भक्त ने मुझसे कहा-स्वामी जी ! मुझे डर लगने लगा है। मैं पहले नहीं डरता था, यह डर मुझमें क्यों बैठ गया है ?
मैंने कहा-तुममें और परमात्मा में कुछ दूरी आ गई है इसलिए डर लगता है। दूरी अवसाद ला रहा है, यही तनाव ला रहा है और यही भय ला रहा है। इसका कारण यह है कि तुम्हारे और संतों के बीच तुम्हारे और गुरु के बीच तुम्हारे और भगवान के बीच में कुछ दूरी आ गई है। मेरी बात उसकी समझ में आ गई। वह चिंता तथा भय से मुक्त हो गया।
हम अपनी स्मृति में जगत को रखते हैं। हमारी स्मृति में पदार्थ है। चूंकि ये सम्मानजनक हैं, प्रतिष्ठाकारक हैं तथा सुख के मूल हैं इसलिए इन्हीं को लक्ष्य मानकर जी रहे हैं। हमारी स्मृति में यही हैं कि इन्हें कैसे प्राप्त कर लें ? ये हमारे बन जाएं, बड़ा मकान बन जाए, बहुत अच्छा वाहन हो, संतान हो, फिर वह बड़ी हो जाए, उनका अच्छा अध्ययन हो जाए; फिर बहू आए, उनके बच्चे हो जाएं-यही लक्ष्य है हमारा, हमारी स्मृति में यही रहता है।
स्मृति मात्र यह है कि देह सुख किसमें छिपे हुए हैं ? दैहिक आकर्षण की पूर्ति में ही हमारी स्मृति है। हमें निरंतर देह की याद रहती है कि मैं ‘ये’ हूं। देह की पूर्ति कभी नहीं हो सकती। यह एक रस नहीं है। यह दुख का एक कारण है। इसका निरंतर स्मरण रखना ही भयकारक है। इसी में भय छिपा हुआ है। अपने को देह मानने से भय आता है क्योंकि यह विनाशी है, खंडित होने वाला है, जर्जर है, नाशवान है, रोगी है। हमारे पास जो भय, दुख और क्लेश आता है; वह अपने को देह मानने से ही आता है।
समाधि-चौथी चीज है-समाधि। जो लोग कभी अपना समाधान नहीं कर पाते और निरंतर समस्याओं से घिरे रहते हैं, वे अपने आपमें स्वयं एक समस्या हैं। ऐसे लोग अपनी दुविधाओं का अंत नहीं कर पाते, अपने संशयों का भंजन नहीं कर पाते, अपने संदेह को नहीं समझ पाते और अपने अज्ञान को नहीं माप पाते। क्या ग्राफ है हमारे अज्ञान का ? जो व्यक्ति अपने अज्ञान का ग्राफ नहीं समझ पा रहा है कि वह कितना ऊंचा या नीचे जा रहा है; जो अपनी अस्मिता, राग-द्वेष या अभिनिवेश को नहीं जानता तथा अपने भीतर के अज्ञान और अविद्या को नहीं पहचानता; वह अपना समाधान कभी भी कदापि नहीं कर पाता।
ऐसी स्थिति में बुद्धिमान व्यक्ति को चाहिए कि वह ‘येन केन प्रकारेण’ अपने चित्त का स्थायी समाधान करे। वह समाधान की दिशा में पुरुषार्थ करे-अच्छे ग्रंथों को पढ़े, संतों के पास जाएं, विद्वानों के पास बैठे और अपने विवेक का लाभ उठाए। जो लोग अपने विवेक का कभी लाभ नहीं लेते, उन लोगों को स्थायी समाधान कभी नहीं मिलता-मानो समाधि।
अब यह प्रश्न उठता है कि आखिर कौन सी चीज ऐसी है जिससे हमें स्थायी समाधान मिल सकता है ? यह चीज है-विवेक। समाधि का आशय यहां समाधान से है। बुद्धिमान व्यक्ति वह है जो हर पल अपने समाधान में रहता है। जब आप समाधान में रहेंगे तो स्वाभाविक रूप से आपके होंठों पर एक मुस्कान आ जाएगी और आपके आस-पास एक प्रसन्नता छा जाएगी। यदि आपमें कोई समाधान नहीं है तो आपके चेहरे पर उलझन झलकती रहेगी और आपकी आंखों तथा चेहरे पर चिंताओं का जाल दिखेगा।
समस्या होने पर कोई व्यक्ति हमें क्यों चुप कराए हमें क्यों सांत्वना दे, हमें क्यों ढाढस बंधाए, हमारा संबल क्यों बने ? क्या हम इतने कमजोर, इतने दुर्बल, इतने भीरू, इतने दब्बू और इतने कायर हैं कि कोई हमें चुप कराए, सांत्वना दे या कंधा थपथपाए कि बहुत बड़ा नुकसान हो गया। सहानुभूति जताने नहीं आ रहे हैं लोग। कोई चुप कराने नहीं आ रहा है। आप अपना समाधान स्वयं उसी समय करें। अगर आप रोने बैठ जाएंगे तो कोई साथ देने को तैयार नहीं होगा। अगर आप मुस्कराएंगे तो सब आपका साथ देंगे और सबको अच्छा भी लगेगा। यह मुस्कान आपके भीतर से निकलनी चाहिए। ऐसी मुस्कान तब आएगी जब आप अपना समाधान कर लेंगे।
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